Thursday, December 18, 2008

जलती ईट...

दादी कहानी सुनाती.
एक चालक बन्दर, बच्चे का खाना रोज़ छीन कर खा जाता,
बच्चे को गुस्सा आया
बन्दर को दावत पर बुलाया, बढ़िया खाना बनाया ओर जलती ईट का आसन लगाया।
बन्दर उस पर बैठते ही जल गया
तब से उसके पिछवाडे का रंग बदल गया।
ये कहानी दादी हर रोज़ सुनाती,
कहानी के बाद संदेश पढाती,
बच्चे की बुद्धिमानी को ही सीख बताती।
लेकिन मै हमेशा उस जलती ईट के बारे में सोचती ,
सौ सवाल पूछती,
कितना,कैसे और कहाँ गर्म किया ईट को?
उसे ये फालतू लगता,
ठोक पीट कर सुला देती।
रात भर सपने में वो ईट नाचती,
जिसने चालक बन्दर को सबक सिखाया
सोचती काश ! वो ईट मेरे पास होती,
सोनू को मज़ा चखाती,
घर बुलाती, और उसी पर बैठाती।
बिन बात मुझे पीटता है,
पहले मारता है फ़िर दूर जाकर खिझाता है।
आज भी वो जलती ईट याद आती है,
जब कोई नपुंसक धक्का मारकर हँसता है और दूर से दांत पीसता है।

Friday, December 5, 2008

मौलिकता की खोज में.......1

मेरा पूरा विमर्श मौलिकता को लेकर है मै हर पल मौलिकता की खोज में हु...नकली ओर बनावटी मुझे कतई पसंद नही।
सारे आवरण नोच नोच कर फेक देना चाहती हु हर एक चेहरे से, शब्द से, ओर देह भाषा से
मै चाहती हु की हम एक भाषा खोजे,जो शब्द विहीन हो पर संवेदना विहीन नही
कही से वो साहस ढूंढ लाये जो ये स्वीकार सके की "मुझसे गलती हो गई"

गलती हो जाना उतना ही सामान्य है जितना पाव फिसल जाना ओर ऐसा भी नही की इसकी स्वीकारोक्ति हमें ह्रदय से नही होती लेकिन हमारा नकलीपन हमें रोक देता है एक जाली अहम् का श्वाशोछ्वास नथुनों से निकलता है ओर वातावरण को भेद देता है....

ऐसे ही इतना प्रददुषण नही बढ़ा है जो झूठा आवरण हमने ओढा है वो बहुत तेजी से साँस ले रह है ...धुआ बढ़ रहा है ...वो बनावटीपन का छल्ला मुझे अपने चारो ओर दिख रहा है ...मेरा दम घुट रहा है.....

अगर तुम युवा हो...

आदर्श राठोर जी के ब्लॉग प्याला पर पहली कविता अगर तुम युवा हो... पढ़ी बहुत अच्छी लगी
उसको आगे बढ़ाना चाहती हु इसी क्रम में...

किसी के डर से कभी रास्ता मत बदलना
जब भी चलो तो अपने जस्बे को सीने में नही हाथो में लेकर चलना
ओर अगर छलनी भी हो जाओ तो हाथो को फैलाकर उस जस्बे को आजाद कर देना,
उन तमाम लोगो के लिए जो उम्र से पहले ही बुड्ढे हो गए
अगर तुम युवा हो...

Friday, November 21, 2008

नीम का पेड़

आज मन कुछ ठीक नही

अपने घर के बाहर वाला नीम का पेड़ याद आ रहा है

बड़ा गहरा रिश्ता रहा हमारा

माँ की छड़ी से उसने मुझे कई बार बचाया

उसकी डालो ने मेरा भारी बोझ उठाया

अनीता मेरे बचपन की सहेली रोज शाम मुझसे उसी पेड़ के नीचे मिलने आती थी

बातें करती जाती ओर अपने नाखूनों से पेड़ को कुरेदती थी

बहरा बुआ को जब खुजली हुई तो उसी पेड़ से नीम की पाती तुडवाने आती थी

चबूतरे पर बैठती खैनी पीटती ओर मोहअले भर को गरियाती थी

गंगाचरण चाचा का लड़का मदन एक बार मुझसे वही भीड़ गया

मुझे मार कर भागा ओर चबूतरे पर ही गिर गया

दीपावली में हम उस पेड़ के नीचे घरोनदा बनाते थे

गोबर से लीपते ओर फ़िर दिया जलाते थे

अबकी बार घर गई तो वो पेड़ कट चुका था

चबूतरे पर देखा तो एक नाखून , दीये का टुकडा, बुआ की खैनी ओर मेरा बचपन पड़ा था .

जानती हो न माँ

मै जब रोना चाहती हु पर रो नही पाती
मेरे उदास चेहरे , कापते होठो ओर बरोनियो के परदे से झाकते आंसुओ को तुम देख लेती हो न
मेरे दिल से उठी उमंगो के उफान को जब मै अपने अभिव्यक्ति हीनता के बाँध से रोक देती हु,
तुम उसे अपने दिल में महसूस करती हो न
अपनी गलतियों को जब मै अपने चेहरे के बनावटी भावो से नकार देती हु
तुम उसे पहचान कर माफ़ करती हो न
तुम सब जानती हो न माँ .

मै तुमसे दूर क्यों नही जाती

जितना तुमको देखती हु उतना मै कापती हु
बढाती तो हु पर हाथ मिला नही पाती
जलती हु हर दिन इस आग में
आख़िर ख़ुद को क्यों नही बचा पाती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती .

एक सवाल है जो ख़ुद से बार बार पूछती हु
क्यों मै तुझको हर बार टोकती हु
एक रेखा दरमिया मै खीच क्यों नही लेती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती.

रात एक गजल ने दिल तोड़ दिया है मेरा
सो बार तुझसे दूर किया आखिर नाम जोड़ दिया तेरा
मेरी तन्हाई मुझे अकेले में क्यों नही खाती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती.

सुबह से शाम तक मै ख़ुद को अकेला नही पाती
जब से मिली हु तुमसे मै बिरहा नही गाती
चाहती तो हु पर ख़ुद से मिल नही पाती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती.

अपनी इस हरकत पे मुझे रत्ती भर भी शर्म नही आती
कहती तो हु पर क्यों कर नही पाती
जैसे छाया शरीर दे ठोकर नही खाती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती.

मेरी ये गुस्ताखी मुझे एक पल नही भाति
पाव तो रखती हु मगर चल नही पाती
इस बरफ के जंगल में मै क्यों गल नही जाती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती.

Monday, November 10, 2008

कोई यहाँ आया था

कल कोई यहाँ आया था
बीती रात किसी ने मेरा दरवाजा खटखटाया था
कोई मुसाफिर रास्ता भूल गया था शायद
इतना निंदासा था की चोखट पर ही ढेर हो गया
मंजिल भूल कर रस्ते पर ही सो गया पर
यही दरवाजे पर बैठी हु सुबह उठते ही रास्ता पूछेगा मै न मिली तो बीती रात ओर मुझे दोनों को कोसेगा
कल कोई यहाँ आया था