Friday, November 21, 2008

नीम का पेड़

आज मन कुछ ठीक नही

अपने घर के बाहर वाला नीम का पेड़ याद आ रहा है

बड़ा गहरा रिश्ता रहा हमारा

माँ की छड़ी से उसने मुझे कई बार बचाया

उसकी डालो ने मेरा भारी बोझ उठाया

अनीता मेरे बचपन की सहेली रोज शाम मुझसे उसी पेड़ के नीचे मिलने आती थी

बातें करती जाती ओर अपने नाखूनों से पेड़ को कुरेदती थी

बहरा बुआ को जब खुजली हुई तो उसी पेड़ से नीम की पाती तुडवाने आती थी

चबूतरे पर बैठती खैनी पीटती ओर मोहअले भर को गरियाती थी

गंगाचरण चाचा का लड़का मदन एक बार मुझसे वही भीड़ गया

मुझे मार कर भागा ओर चबूतरे पर ही गिर गया

दीपावली में हम उस पेड़ के नीचे घरोनदा बनाते थे

गोबर से लीपते ओर फ़िर दिया जलाते थे

अबकी बार घर गई तो वो पेड़ कट चुका था

चबूतरे पर देखा तो एक नाखून , दीये का टुकडा, बुआ की खैनी ओर मेरा बचपन पड़ा था .

जानती हो न माँ

मै जब रोना चाहती हु पर रो नही पाती
मेरे उदास चेहरे , कापते होठो ओर बरोनियो के परदे से झाकते आंसुओ को तुम देख लेती हो न
मेरे दिल से उठी उमंगो के उफान को जब मै अपने अभिव्यक्ति हीनता के बाँध से रोक देती हु,
तुम उसे अपने दिल में महसूस करती हो न
अपनी गलतियों को जब मै अपने चेहरे के बनावटी भावो से नकार देती हु
तुम उसे पहचान कर माफ़ करती हो न
तुम सब जानती हो न माँ .

मै तुमसे दूर क्यों नही जाती

जितना तुमको देखती हु उतना मै कापती हु
बढाती तो हु पर हाथ मिला नही पाती
जलती हु हर दिन इस आग में
आख़िर ख़ुद को क्यों नही बचा पाती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती .

एक सवाल है जो ख़ुद से बार बार पूछती हु
क्यों मै तुझको हर बार टोकती हु
एक रेखा दरमिया मै खीच क्यों नही लेती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती.

रात एक गजल ने दिल तोड़ दिया है मेरा
सो बार तुझसे दूर किया आखिर नाम जोड़ दिया तेरा
मेरी तन्हाई मुझे अकेले में क्यों नही खाती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती.

सुबह से शाम तक मै ख़ुद को अकेला नही पाती
जब से मिली हु तुमसे मै बिरहा नही गाती
चाहती तो हु पर ख़ुद से मिल नही पाती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती.

अपनी इस हरकत पे मुझे रत्ती भर भी शर्म नही आती
कहती तो हु पर क्यों कर नही पाती
जैसे छाया शरीर दे ठोकर नही खाती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती.

मेरी ये गुस्ताखी मुझे एक पल नही भाति
पाव तो रखती हु मगर चल नही पाती
इस बरफ के जंगल में मै क्यों गल नही जाती
क्युकी तुम समझदार हो
मै तुमसे दूर क्यों नही जाती.

Monday, November 10, 2008

कोई यहाँ आया था

कल कोई यहाँ आया था
बीती रात किसी ने मेरा दरवाजा खटखटाया था
कोई मुसाफिर रास्ता भूल गया था शायद
इतना निंदासा था की चोखट पर ही ढेर हो गया
मंजिल भूल कर रस्ते पर ही सो गया पर
यही दरवाजे पर बैठी हु सुबह उठते ही रास्ता पूछेगा मै न मिली तो बीती रात ओर मुझे दोनों को कोसेगा
कल कोई यहाँ आया था

Friday, November 7, 2008

मै ही स्वतंत्रता हू

हा मै ही स्वतंत्रता हू
ओर वो जो बेधड़क मेरी नसों से गुजर गया वो विरोध मेरा प्रेमी है
मुझे लाज नही आती कहने में की लगभग हर रात हमबिस्तर रही हू उसके, ओर उन्ही अधजगी खूबसूरत रातो का परिणाम है वो मेरा जिगर का टुकडा विचलन
वो अभी छोटा है
बोल नही पाता रोता है चिलाता है ओर ऐसे ही अपनी व्यथा बता है
उसकी ये व्यथा कोई समझ नही पता
लेकिन मै सब समझती हू आखिर माँ हू
वो अभी संघर्ष नही खा पाता इसलिए स्तनपान कराती हू केवल विचार ही पिलाती हू
वो बड़ा होकर परिवर्तन बनेगा हमारा नाम रोशन करेगा
न न उसे गाली मत देना वो मेरी नाजायज़ ओलाद नही प्रेम साधना है
विरोध ने उसे अभी नाकारा नही है वो मेरा बच्चा है आवारा नही है
उसे अनाथ भी मत कहना क्योकि मै अभी जिन्दा हू
ओर मै बता दू की अपने इस कृत्य पर मै शर्मिंदा नही हू