दादी कहानी सुनाती.
एक चालक बन्दर, बच्चे का खाना रोज़ छीन कर खा जाता,
बच्चे को गुस्सा आया
बन्दर को दावत पर बुलाया, बढ़िया खाना बनाया ओर जलती ईट का आसन लगाया।
बन्दर उस पर बैठते ही जल गया
तब से उसके पिछवाडे का रंग बदल गया।
ये कहानी दादी हर रोज़ सुनाती,
कहानी के बाद संदेश पढाती,
बच्चे की बुद्धिमानी को ही सीख बताती।
लेकिन मै हमेशा उस जलती ईट के बारे में सोचती ,
सौ सवाल पूछती,
कितना,कैसे और कहाँ गर्म किया ईट को?
उसे ये फालतू लगता,
ठोक पीट कर सुला देती।
रात भर सपने में वो ईट नाचती,
जिसने चालक बन्दर को सबक सिखाया
सोचती काश ! वो ईट मेरे पास होती,
सोनू को मज़ा चखाती,
घर बुलाती, और उसी पर बैठाती।
बिन बात मुझे पीटता है,
पहले मारता है फ़िर दूर जाकर खिझाता है।
आज भी वो जलती ईट याद आती है,
जब कोई नपुंसक धक्का मारकर हँसता है और दूर से दांत पीसता है।
Thursday, December 18, 2008
Friday, December 5, 2008
मौलिकता की खोज में.......1
मेरा पूरा विमर्श मौलिकता को लेकर है मै हर पल मौलिकता की खोज में हु...नकली ओर बनावटी मुझे कतई पसंद नही।
सारे आवरण नोच नोच कर फेक देना चाहती हु हर एक चेहरे से, शब्द से, ओर देह भाषा से
मै चाहती हु की हम एक भाषा खोजे,जो शब्द विहीन हो पर संवेदना विहीन नही
कही से वो साहस ढूंढ लाये जो ये स्वीकार सके की "मुझसे गलती हो गई"
गलती हो जाना उतना ही सामान्य है जितना पाव फिसल जाना ओर ऐसा भी नही की इसकी स्वीकारोक्ति हमें ह्रदय से नही होती लेकिन हमारा नकलीपन हमें रोक देता है एक जाली अहम् का श्वाशोछ्वास नथुनों से निकलता है ओर वातावरण को भेद देता है....
ऐसे ही इतना प्रददुषण नही बढ़ा है जो झूठा आवरण हमने ओढा है वो बहुत तेजी से साँस ले रह है ...धुआ बढ़ रहा है ...वो बनावटीपन का छल्ला मुझे अपने चारो ओर दिख रहा है ...मेरा दम घुट रहा है.....
सारे आवरण नोच नोच कर फेक देना चाहती हु हर एक चेहरे से, शब्द से, ओर देह भाषा से
मै चाहती हु की हम एक भाषा खोजे,जो शब्द विहीन हो पर संवेदना विहीन नही
कही से वो साहस ढूंढ लाये जो ये स्वीकार सके की "मुझसे गलती हो गई"
गलती हो जाना उतना ही सामान्य है जितना पाव फिसल जाना ओर ऐसा भी नही की इसकी स्वीकारोक्ति हमें ह्रदय से नही होती लेकिन हमारा नकलीपन हमें रोक देता है एक जाली अहम् का श्वाशोछ्वास नथुनों से निकलता है ओर वातावरण को भेद देता है....
ऐसे ही इतना प्रददुषण नही बढ़ा है जो झूठा आवरण हमने ओढा है वो बहुत तेजी से साँस ले रह है ...धुआ बढ़ रहा है ...वो बनावटीपन का छल्ला मुझे अपने चारो ओर दिख रहा है ...मेरा दम घुट रहा है.....
अगर तुम युवा हो...
आदर्श राठोर जी के ब्लॉग प्याला पर पहली कविता अगर तुम युवा हो... पढ़ी बहुत अच्छी लगी
उसको आगे बढ़ाना चाहती हु इसी क्रम में...
किसी के डर से कभी रास्ता मत बदलना
जब भी चलो तो अपने जस्बे को सीने में नही हाथो में लेकर चलना
ओर अगर छलनी भी हो जाओ तो हाथो को फैलाकर उस जस्बे को आजाद कर देना,
उन तमाम लोगो के लिए जो उम्र से पहले ही बुड्ढे हो गए
अगर तुम युवा हो...
उसको आगे बढ़ाना चाहती हु इसी क्रम में...
किसी के डर से कभी रास्ता मत बदलना
जब भी चलो तो अपने जस्बे को सीने में नही हाथो में लेकर चलना
ओर अगर छलनी भी हो जाओ तो हाथो को फैलाकर उस जस्बे को आजाद कर देना,
उन तमाम लोगो के लिए जो उम्र से पहले ही बुड्ढे हो गए
अगर तुम युवा हो...
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